पीजीआई के डॉक्टरों ने खोजी हैरतंगेज तकनीक: सिर के छोटे से छोटे ट्यूमर को ढूंढऩे के लिए बनाई दवा

PGI doctors discovered amazing technology

PGI doctors discovered amazing technology

PGI doctors discovered amazing technology- चंडीगढ़ (अर्थ प्रकाश/साजन शर्मा)। दुनिया में पहली बार चंडीगढ़ पीजीआई के डॉक्टरों द्वारा एक ऐसी दवा (तकनीक) तैयार की गई है जो किसी इंसान के अंदर छोटे से भी छोटा ट्यूमर को ढूंढ निकालने के लिए वरदान सिद्ध होगी यह दवाई चंडीगढ़ के पीजीआई के अलावा दुनिया के किसी हॉस्पिटल में उपलब्ध नहीं है। तकनीक तैयार करने वाली एंडोक्राइनोलॉजी विभाग की डॉक्टर रमा वालिया और डॉक्टर जया ने बताया कि वह दवाई है जिससे इंजेक्शन के जरिये मरीज के शरीर में दाखिल किया जाता है।

यह दवाई वहीं जाकर काम करती है जहां पर वह छोटे से छोटा ट्यूमर होता है। यह छोटा ट्यूमर एमआरआई में भी नजर नहीं आता। इस मेडिसन से इसका पता लग जाता है। इंसान के शरीर मे कई  ऐसे ट्यूमर बन जाते हैं जो बहुत छोटे होते हैं और दिखाई नहीं देते जिससे यह बड़े होकर कैंसर का रूप ले लेते हैं।   डॉक्टर रमा वालिया और डॉक्टर जया ने बताया कि ये दवा उन्होंने तैयार की है और इसका पेटेंट करवाया है।

अन्य कहीं भी इस तरह की तकनीक नहीं है। इसे प्रयोग करने से पहले दूसरे संस्थानों या डॉक्टरों को बाकायदा परमिशन लेनी पड़ेगी। यह मरीजों के इलाज में बहुत कारगर तकनीक है। दोनों डॉक्टरों ने बताया कि इस दवाई से हमने अब तक 64 मरीजों का इलाज किया है। सभी मरीज बिलकुल स्वस्थ हैं। डॉक्टरों के अनुसार दुनिया के कोनों से मरीजों का इलाज करने के लिये तकनीक का प्रयोग करने के लिए हमारे पास फोन आते हैं। हमने इस मेडिसन को पेटेंट करवा लिया है।

कोर्टिसोल की वजह से होता है कुशिंग सिंड्रोम

कोर्टिसोल शरीर में एक हार्मोन है जो कई महत्वपूर्ण कार्य करता है। जैसे मेटाबोलिज्म (चयापचय) को नियंत्रित करना और तनाव से निपटने में मदद करना इसका काम है। कभी-कभी, शरीर बहुत अधिक कोर्टिसोल बनाता है तो इससे कुशिंग सिंड्रोम नामक स्थिति पैदा हो सकती है। यह विभिन्न कारणों से हो सकता है। इसका एक सामान्य कारण पिट्यूटरी ग्रंथि में एक छोटा ट्यूमर है जिसे कॉर्टिकोट्रोपिनोमा कहा जाता है। यह एक विशिष्ट प्रकार के कुशिंग सिंड्रोम का कारण बनता है जिसे कुशिंग रोग कहा जाता है। लेकिन इसका एक अन्य प्रकार है जिसे एक्टोपिक कुशिंग सिंड्रोम कहा जाता है, जो पिट्यूटरी ग्रंथि में नहीं बल्कि शरीर में कहीं और समस्या के कारण होता है। मंगलवार को पीजीआई के एंडोक्राइनोलॉजी विभाग के हैड प्रो. डॉ. संजय बडाढ़ा ने अपनी टीम के साथ एक ऐसी तकनीक के बारे जानकारी दी जो पिट्यूटरी ग्रंथी में विकसित हो रहे ट्यूमर (कुशिंग सिंड्रोम) को सटीकता से बता सकती है।

छोटे ट्यूमर को पिट्यूटरी ग्रंथि में देखना है बहुत मुश्किल

कॉर्टिकोट्रोपिनोमा पिट्यूटरी ग्रंथि में छोटे ट्यूमर होते हैं, जो स्वयं मस्तिष्क के भीतर मूंगफली के आकार का एक छोटा हिस्सा होता है। ट्यूमर आमतौर पर बहुत छोटा होता है जिसका आकार  लगभग 5 मिलीमीटर तक होता है। अब, पिट्यूटरी ग्रंथि जैसे छोटे क्षेत्र में, जिसका व्यास केवल 10 मिलीमीटर है, इतनी छोटी चीज़ देखना काफी चुनौतीपूर्ण है। डॉक्टरों ने मंगलवार को प्रेस वार्ता के दौरान बताया कि कल्पना कीजिए कि आप एक छोटे से कमरे में एक छोटा सा धब्बा ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं; यह आसान नहीं है। विशेष रूप से उन लोगों में जिनकी उस क्षेत्र में पिछली सर्जरी हुई है, पिट्यूटरी ग्रंथि का आकार बदल सकता है, जिससे एमआरआई स्कैन पर इस ट्यूमर को देखना और भी कठिन हो जाता है, जो मस्तिष्क की विस्तृत तस्वीरें देता है। यहां इसे ढूंढना और भी जटिल हो जाता है। कभी-कभी, भले ही किसी को किसी अन्य चीज़ (एक्टोपिक कुशिंग सिंड्रोम) के कारण कुशिंग सिंड्रोम का प्रकार हो, फिर भी उसमें पिट्यूटरी वृद्धि हो सकती है। ये वृद्धि कुशिंग सिंड्रोम का कारण नहीं बनती हैं; ये बस वहीं रहते हैं। यह पता लगाने के लिए कि कुशिंग सिंड्रोम का कारण क्या है और यह कहां से आ रहा है, हमें ट्यूमर का स्थानीयकरण करना होगा। यानि पिट्यूटरी में कौन सा पक्ष और कार्यात्मक (यह दिखाना कि शरीर कैसे काम करता है)।

एमआरआई से नहीं पता चलता कुशिंग सिंड्रोम का कारण

पिट्यूटरी ग्रंथि में इन छोटे ट्यूमर या कॉर्टिकोट्रोपिनोमा को देखने के लिए हम अक्सर एमआरआई का उपयोग करते हैं, लेकिन यहाँ एक समस्या है। एमआरआई तस्वीरें हमेशा यह नहीं दिखा सकती हैं कि कुशिंग सिंड्रोम का कारण क्या है या यह कहाँ से आ रहा है क्योंकि वे पूरी कहानी नहीं बताते हैं। एक अन्य विशेष परीक्षण जिसे इन्फीरियर पेट्रोसाल साइनस सैंपलिंग (आईपीएसएस) कहा जाता है, का उपयोग इस बारे में कुछ सुराग प्राप्त हो सकता है जिससे पता चलता है किवृद्धि कहां हो सकती है। आईपीएसएस के दौरान मरीज़ की कमर की नस में एक छोटी ट्यूब डाली जाती है और मस्तिष्क के पास की कुछ नसों (अवर पेट्रोसल साइनस सैंपलिंग) तक निर्देशित किया। इन नसों से रक्त के नमूने लेकर, हम बता सकते हैं कि पिट्यूटरी ग्रंथि का कौन सा पक्ष उस हार्मोन एसीटीएच का बहुत अधिक उत्पादन कर रहा है।

आईपीएसएस भी दे सकता है बस कुछ संकेत

डॉक्टरों ने बताया कि आईपीएसएस कुछ संकेत दे सकता है कि पिट्यूटरी ग्रंथि के किस तरफ समस्या है। यह पिट्यूटरी के अंदर उस सटीक स्थान को सटीक रूप से इंगित नहीं कर सकता है जहां ट्यूमर है। वृद्धि का सटीक स्थान जानना महत्वपूर्ण है क्योंकि इसे हटाने के लिए सर्जरी से समस्या ठीक हो सकती है।

आईपीएसएस है महंगा प्रोसिजर

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इन ट्यूमर के लिए आईपीएसएस-निर्देशित सर्जरी केवल आधा समय ही काम करती है। साथ ही, आईपीएसएस काफी महंगा है, जिसकी लागत प्रति मरीज लगभग 50 हजार से 70 हजार के बीच आती है।

पीईटी-सीटी ज्यादा कारगर व सस्ती तकनीक

ऐसा करने के लिये एक अन्य परीक्षण पीईटी-सीटी किया जाता है जो अधिक किफायती और बिना किसी काटछांट के किया जाता है। पीईटी-सीटी के लिए उपयुक्त मॉलीक्यूल्स (अणुओं का उपयोग कर) के जरिये हम यह जान सकते हैं कि शरीर के अंदर क्या हो रहा है और समस्या कहां हो सकती है। समस्या चाहे पिट्यूटरी ग्रंथि में हो या कहीं और, इसका पता लगाया जा सकता है। पीईटी-सीटी शारीरिक और कार्यात्मक इमेजिंग को जोड़ती है, जिससे यह कुशिंग रोग के निदान की सटीकता में सुधार करने और रोगियों को बेहतर परिणाम के लिए सही उपचार का पता लगाने में मदद करने का एक आशाजनक तरीका बन जाता है।

पेटेंट हो गई है तकनीक

एंडोक्राइनोलॉजी विभाग के हैड व प्रोफेसर डॉ. संजय बढ़ाडा ने पत्रकार वार्ता के दौरान इस तकनीक के संबंध में जानकारी देते हुए बताया कि सीआरएच-पीईटी/सीटी और 2. एम-डेस्मो-पीईटी/सीटी का दो अणुओं सीआरएच और एम-डेस्मो में से आविष्कार किया जा रहा है। डॉ. रमा वालिया और डॉ. जया शुक्ला के नाम पर इसका पेटेंट कराया जा रहा है। कुशिंग सिंड्रोम के रोगियों में कॉर्टिकोट्रोपिनोमा की कल्पना करने के लिए इन अणुओं का उपयोग करके पीईटी-सीटी इमेजिंग एंडोक्रिनोलॉजी, न्यूक्लियर मेडिसन, रेडियोलॉजी और न्यूरोसर्जरी विभाग के सहयोग से की जा रही है। नवीनता कॉर्टिकोट्रोपिनोमा को तीन आयामों में सटीक रूप से देखने और स्थानीयकृत करने की उनकी क्षमता में निहित है जो वास्तव में ट्यूमर को शल्य चिकित्सा से हटाने में मदद करती है। इन तकनीकों को पेटेंट करके, इसमें शामिल विभागों और शोधकर्ताओं ने इन अणुओं के उपयोग और लाइसेंस के विशेष अधिकार सुरक्षित कर लिए हैं। इसका मतलब यह है कि अन्य चिकित्सा संस्थानों या संगठनों को कुशिंग सिंड्रोम के निदान और उपचार के लिए सीआरएच- और एम-डेस्मो-आधारित पीईटी-सीटी का उपयोग करने के लिए अनुमति या लाइसेंसिंग समझौते की आवश्यकता होगी।